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‘दीपक बिना तेल’

आगोश
आगोश
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मै बहुत ही शर्मिंदा और गमसार हूँ तेरी वाजिब तकरीर का ।
मै खुद नहीं बैठा हूँ बैठाया हुआ हूँ किसी और का ।

ऐ तवारीख देख मेरी किस्मत का हश्र क्या है ।
हौदा एक मगर कुर्सी दो देखेंगे अंजाम क्या है ।

दीपक बिना तेल के रौशनी दे रहे हैं।
बत्ती वगैर देखो परवाने जल रहे हैं ।
अपनी करनी कैसी गलती को रो रहे हैं ।
वतन के रखवाले जो खुद सो रहे हैं ।

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